हाय ये साली ज़िन्दगी

हाय ये साली ज़िन्दगी
कहीं अधूरी, कहीं खाली ज़िन्दगी
कभी आखों को मींच कर
कभी दांतों से खीच कर
करते हैं हम जुगाली ज़िन्दगी
हाय ये साली ज़िन्दगी....

बड़े आराम से धूप मैं बैठे होते
कोई पीपल के नीचे लेटे होते
कभी खुलते, बंद होते, तितली के परों को
साँझ ढले देखते रहते दूर से घरों को
क्या बात होती ज़िन्दगी मैं
ख़ुशी भी होती ख़ुशी मैं
पर अब कहाँ ऐसा होता है
क्या बताएं कैसा होता है
बस दौड़ते रहते हैं शाम-ओ- सहर
न कोई पीपल का पेड़ हैं सर -ए - रहगुज़र
ना कोई तितली के परों का दीदार है
न तो घर है, बस छत है दीवार है
जैसे तैसे है संभाली ज़िन्दगी
हाय ये साली ज़िन्दगी....

             - 'राजा'